प्रीतम आपुही में पायो
प्रीतम आपुही में पायो
प्रीतम आपुही में पायो।
जन्म जन्म की मिटी कल्पना,
पूरे गुरु लखायो ।टेक।।
जैसे कुँवर मन बिसर गई थी,
अभरन कहाँ गँवायो ।
एक सखी ने बताय दियो तब,
मन को तिमिर नसायो ॥१॥
ज्यों युवती सपने सुत ढूंढत,
बालक कहाँ गमायो ।
जाग परी जेहूँ को तेहू,
ना कहुँ गयो ना आयो ॥२॥
मृगा पास बसे कस्तूरी,
ढूंढत बन बन धायो
नासा स्वाद परो जब वाके,
फिर आपुन पहलायो ।।३।
कहे कबीर मगन भये मनुवां,
ज्यों गूंगा गुड़ खायो ।
वाके स्वाद कहें अब कासों,
मन ही मन मुसकायो ||४|
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