गगन में आवाज होती झीनी
गगन में आवाज होती झीनी
कोई सुनता है गुरुज्ञानी
गगन में आवाज होती झीनी ।।टेक।।
पहिले आया नाद बिन्द से,
फेर जमाया पानी ।
सब घट पूरन पूर रहा है,
अलख पुरुष निरबानी ।।१।।
वहां से आया पत लिखाया,
तृष्णा नहीं बुझानी ।
अमृत छोड विषै रस चाखे,
उलटी फांस फंसानी ।।२।।
राज करते राजा जैहैं,
रुप धरंती रानी ।
वेद पढन्ते पंडित जैहैं,
जैहैं मुनिवर ज्ञानी ।।३।।
ओहं सोई बाजा बाजै,
त्रिकुटी सुरति. समानी ।
ईंगला पिंगला सुषमन सोधो,
सुन्न ध्वजा फहरानी ||४||
दीद बरदीद हम नजरों देखा,
है यह अमर निशानी ।
कहे कबीर सुनो भाई साधो,
यही आदि की बानी ।।५।।
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