बटाऊ रे चलना आज कि काल्हि

 बटाऊ रे चलना आज कि काल्हि

बटाऊ' रे चलना आज कि काल्हि ।

समुझि न देखे कहा सुख सोवे,

रे मन राम संभालि ||

जैसे तरुबर रैन बसेरा,

पंछी बैठे आहीं ।

ऐसे यह सब हाट पसारा,

आप ही आप जाहीं ||१||

कोई नहीं तेरा सजन संघाति,

जनि खोवे मन मूल ।

यह संसार देखि जनि भूले,

सब ही सेमल फूल ||२||

तन नहीं तेरा धन नहीं तेरा,

काह रहयो इहि लागी ।

कबीर हरि बिनु क्यों सुख सोवे,

काहे न देखे जागी ॥३॥

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