चादर हो गई बहुत पुरानी
चादर हो गई बहुत पुरानी
चादर हो गई बहुत पुरानी,
अब सोच समझ अभिमानी ।।टेका।
अजब जुलाहे चादर बीनी,
सूत करम की तानी ।
सुरति निरति को भरना दीनी,
तब सबके मनमानी ||१||
मैले दाग पड़े पापन के,
विषयन में लपटानी ।
ज्ञान के साबुन लाय न धोयो,
सतसंगति के पानी ।।२।।
भई खराब गई अब सारी,
लोभ मोह में सानी ।
ऐसेहि ओढ़त उमर गमाई,
भली बुरी नहिं जानी ।।३।।
शंका मानि जान जिय अपने,
है यह वस्तु बिरानी ।
कहैं कबीर येहि राखु जतन से,
फेर हाथ नहिं आनी ॥४॥
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