संतो जागत नींद न कीजे
संतो जागत नींद न कीजे
संतो जागत नींद न कीजे ।
काल न खाय कल्प ना ब्यापै,
देह जरा न छीजे टेक।
उलटि गंग समुद्रै सोखै,
शशि औ सूर गरासै ।
नौ ग्रह मार रोगिया बैठे,
जल में बिंब प्रकाशै ॥११॥
बिन चरणन के दस दिस धावे,
बिन लोचन जग सूझे ।
स्यारे उलट सिंह को ग्रासे,
शूरा होय सो बूझे ॥२॥
सीधे घड़ा नहीं जल आवै,
औंधे सो जल भरिया ।
जा कारण नर भिन्न भिन्न कर,
गुरु प्रसादे तरिया ||३||
पैठ गुफा में सब कछु देखै,
बाहर कछू न सूझे ।
उल्टा बान पारधी लागा,
शूरा होय सो बूझे ||४||
गायन कहे कबहुँ ना गावे,
अनबोला नित गावे ।
नटवट बाजा पेखिनि पेखै,
अनहद हेत बढ़ावे ||५||
कथनी वदनी निज के जो है,
यह सब अकथ कहानी ।
धरती उलट अकाशै भेदे;
यह पुरुषों की बानी ॥६॥
बिना पियाला अमृत पीवे,
नदी नीर भर राखे ।
कहे कबीर सो युग युग जीवे,
नाम सुधारस चाखे ॥७॥
Comments
Post a Comment