चलो री वह देसरा
चलो री वह देसरा
चलो री वह देसरा,
जहाँ बरसत रंग अपार ।।टेक।।
वह देस के औघट घाटी,
बिरले पावे पार ।
सतगुरु सिंध नाम पहिचानो,
तन मन धन सब वार ॥१॥
वह देस नौबत बाजे, ,
तत मत झीनों तार ।
श्रवन सुनत कटे जम बाधा,
साधू शब्द अधार ॥२॥
वह देश में जगमग जगमग,
वह शोभा उजियार
तहवा हंस करे कौतूहल,
पुरुष को रुप निहार ||३||
एक हंस की बरनो शोभा,
षोडस रवि छटकार |
भोजन सुधा पुहुप की सेज्या,
आनंद अखंड अपार ||४|
उबरे नाम पाये ते जग ते,
भगति होय नियार ।
कहे कबीर सुनो भाई साधो,
आवागमन निवार ॥५॥
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