संतो माया तजी न जाई

 संतो माया तजी न जाई

संतो माया तजी न जाई,

जैसे बेल वृक्ष लपटाई ॥टेका।

काम तजे तो क्रोध न छूटे,

क्रोध तजे तो लोभा ।

लोभ तजे तो आसा मांडे,

मान बड़ाई शोभा ॥१॥

गृह तजे तो मढ़ी मनावे,

उदय अस्त दे फेरी ।

३३

सद्गुरू कबीर भजन सागर

कुटुम्ब तजे शिष शाखा चाहै,

मन माया ने घेरी ।।२।।

देखत पैसा हाथ न छुवै,

फूटी फावरी ताके ।

आदर मान कछु ना चाहै,

11

झीनी माया झाँके ||३||

कर्म संयोग भये ना पावत,

तौ लग माया त्यागी ।

आशा तृष्णा मिटि न मन की,

का गेही बैरागी ||४||

स्वामी शिष शाखा के कारन,

सौ योजन चल जावै।

जो छुटे तो सीधे छुटे,

हिरदय ज्ञान समावै ॥५॥

माया त्यागे मन बैरागी,

शब्द में सुरत समानी ।

| कहे कबीर सोई संत जौहरी,

जिन झूठी कर जानी ॥६।।

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