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अवधू भूले को घर लावे

 अवधू भूले को घर लावे अवधू भूले को घर लावे, सो जन हमको भावे ॥टेका घर में जोग भोग घर ही में, घर तजि बन नहीं जावे । बन के गये कल्पना उपजे, अब धौ कहाँ समावे ॥१॥ घर में जुक्ति मुक्ति घर ही में, जो गुरू अलख लखावे । सहज सुन्न में रहे समाना, सहज समाधि लावे ||२|| उनमुनि रहै ब्रह्म को चीन्हे, परम तत्त्व को ध्यावे । सुरत निरत सो मेला करिके, अनहद नाद बजावे ||३|| घर में बसत वस्तु भी घर है, घर ही वस्तु मिलावे । कहें कबीर सुनो हो अवधू, ज्यों का त्यों ठहरावे ॥४॥

अवधू सो जोगी मतवारा

 अवधू सो जोगी मतवारा अवधू सो जोगी मतवारा, जाके अन्तर भया उजियाला टेका। अजपा जाप जपे निसिवासर, दुविधा चित्त नहीं धारे । सबसे न्यारा सबके माहीं, ऐसा ब्रह्म विचारे ॥१॥ आशा परखे तृष्णा परखे, परख परख सब लेवे । गुरू के ज्ञान अगम को परचे, ब्रह्म अगनि में देवे ।।२।। मेती सुरति नाद घर माही, तन सो रहे निरासा । प्रेम पियाला उलट के पीवै, सहज होय परकासा ।।३।। सुरति निरति अरू पाँचों पवना, एकही संग चलावे  रहे समाय प्रेम सागर में, मन में मंगल गावे ||४|| कलह कल्पना निकट न आवे, निसि दिन नाम उचारे । कहें कबीर अपनो क्या संसय, सो जन और ही तारे ||५||

अवधू भजन भेद है न्यारा

 अवधू भजन भेद है न्यारा अवधू भजन भेद है न्यारा ।। का मुद्रा माला के पहिरे, का चंदन घिसे लिलारा । मुड़ मुड़ाये का जटा रखाये, का अंग लगाये छारा ||१|| का गाये का लिख बतलाये, का भरमें संसारा । का संध्या के तरपन कीन्हे, का षट कर्म अचारा ||२|| का पूजा पाहन के कीन्हे. का कंद मूल अहारा । तीरथ व्रत का संजम कीन्हे, जो नहिं तत बिचारा ॥३॥ बिन परिचे स्वामी होय बैठे, विषय करै व्यापारा । दया 'धर्म के मर्म न जाने, बाद करै हकारा ॥४॥ फूके कान कुमत अपनी सो, यह बोझे वह भारा । बिन सतगुरु गुरु केते बहि गये, लोभ लहर की धारा ||५|| गहिर गम्भीर पीर जो पावे, खज अखज सों न्यारा । भये सुदिष्ट पार चलने को, सहज मिटे भ्रम भारा ॥६॥ निर्मल जोत आतमा जागे, है निजनाम अधारा । कहें कबीर जाने से कहिये, मैं ते तजे बिकारा ||७||

कहें कबीर सुन गोरख जोगी,

 कहें कबीर सुन गोरख जोगी, गोरख हम जबसे भये बैरागी गोरख हम जबसे भये बैरागी, मेरी सुर्त आदि से लागी ।।टेका। धुंधी काल धुंध का मेला, नहीं गुरु नहीं चेला । ताही दिन हम मूड मूंड़ाये, जब वह पुर्ष अकेला ||१|| धरती नहीं जब टोपी लीन्हा, ब्रह्मा नही तब टीका । महादेव का जनमों नाहीं, तब से योग हम सीखा ॥२॥ सतजुग में हम लीन फाउरी, द्वापर लीन्हे डंडा । त्रेता में आडबंद बैंचे, कलियुग फिरे नौ खंडा ॥३॥ काशी में विश्राम कियो हैं, रामानंद चेताया । हंस उबारन आया ।।४।।

अमरपुर ले चलु हो सजना

 अमरपुर ले चलु हो सजना अमरपुर ले चलु हो सजना ।। अमरपुरी की संकरी गलियाँ, अड़बड़ है चलना । ठोकर लगी गुरू ज्ञान सबद की, उघर गये झपना ||१|| वोहि अमरपुर लागी बजरिया, सौदा है करना वोहि अमरपुर संत बसत है, दरसन है लहना२ ॥२॥ संत समाज सभा जहँ बैठी, वहीं पुरूष है अपना कहत कबीर सुनो भाई साधो, भवसागर है तरना ||३||

अवधू बेगम देश हमारा

 अवधू बेगम देश हमारा अवधू बेगम देश हमारा ।। राजा रंक फकीर बादशाह, सबसे कहूँ पुकारा ||टेक|| जो तुम चाहत अहो परमपद, बसिहो देश हमारा । जो तुम आये झीने होके, तजौ मनी को भारा ||१|| ऐसी रहनी रहो रे गोरख, सहज उतरि जाव पारा । सत का नाम है महताबे, साहिब के दरबारा ।।२।। बचना चाहो कठिन काल से, गहो नाम टकसारा कहै कबीर सुनो हो गोरख, सत्यनाम है सारा ॥३॥

जहाँ से आये अमर वह देशवा

 जहाँ से आये अमर वह देशवा जहाँ से आये अमर वह देशवा ।। न तहाँ धरति न पवन अकशवा, न वहाँ चंद सुरज परकशवा न वहाँ ब्राह्मण शूद न बैसवा, न योगी जंगम दरवेशवा ।।२।। न वहाँ ब्रम्हा विष्णु महेशवा, निराकार नहि गौरी गणेशवा ||३|| कहैं कबीर ले आये संदेशवा, सार शब्द गहि चलो वह देशवा ||४||