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Showing posts from January, 2021

अवधू भूले को घर लावे

 अवधू भूले को घर लावे अवधू भूले को घर लावे, सो जन हमको भावे ॥टेका घर में जोग भोग घर ही में, घर तजि बन नहीं जावे । बन के गये कल्पना उपजे, अब धौ कहाँ समावे ॥१॥ घर में जुक्ति मुक्ति घर ही में, जो गुरू अलख लखावे । सहज सुन्न में रहे समाना, सहज समाधि लावे ||२|| उनमुनि रहै ब्रह्म को चीन्हे, परम तत्त्व को ध्यावे । सुरत निरत सो मेला करिके, अनहद नाद बजावे ||३|| घर में बसत वस्तु भी घर है, घर ही वस्तु मिलावे । कहें कबीर सुनो हो अवधू, ज्यों का त्यों ठहरावे ॥४॥

अवधू सो जोगी मतवारा

 अवधू सो जोगी मतवारा अवधू सो जोगी मतवारा, जाके अन्तर भया उजियाला टेका। अजपा जाप जपे निसिवासर, दुविधा चित्त नहीं धारे । सबसे न्यारा सबके माहीं, ऐसा ब्रह्म विचारे ॥१॥ आशा परखे तृष्णा परखे, परख परख सब लेवे । गुरू के ज्ञान अगम को परचे, ब्रह्म अगनि में देवे ।।२।। मेती सुरति नाद घर माही, तन सो रहे निरासा । प्रेम पियाला उलट के पीवै, सहज होय परकासा ।।३।। सुरति निरति अरू पाँचों पवना, एकही संग चलावे  रहे समाय प्रेम सागर में, मन में मंगल गावे ||४|| कलह कल्पना निकट न आवे, निसि दिन नाम उचारे । कहें कबीर अपनो क्या संसय, सो जन और ही तारे ||५||

अवधू भजन भेद है न्यारा

 अवधू भजन भेद है न्यारा अवधू भजन भेद है न्यारा ।। का मुद्रा माला के पहिरे, का चंदन घिसे लिलारा । मुड़ मुड़ाये का जटा रखाये, का अंग लगाये छारा ||१|| का गाये का लिख बतलाये, का भरमें संसारा । का संध्या के तरपन कीन्हे, का षट कर्म अचारा ||२|| का पूजा पाहन के कीन्हे. का कंद मूल अहारा । तीरथ व्रत का संजम कीन्हे, जो नहिं तत बिचारा ॥३॥ बिन परिचे स्वामी होय बैठे, विषय करै व्यापारा । दया 'धर्म के मर्म न जाने, बाद करै हकारा ॥४॥ फूके कान कुमत अपनी सो, यह बोझे वह भारा । बिन सतगुरु गुरु केते बहि गये, लोभ लहर की धारा ||५|| गहिर गम्भीर पीर जो पावे, खज अखज सों न्यारा । भये सुदिष्ट पार चलने को, सहज मिटे भ्रम भारा ॥६॥ निर्मल जोत आतमा जागे, है निजनाम अधारा । कहें कबीर जाने से कहिये, मैं ते तजे बिकारा ||७||

कहें कबीर सुन गोरख जोगी,

 कहें कबीर सुन गोरख जोगी, गोरख हम जबसे भये बैरागी गोरख हम जबसे भये बैरागी, मेरी सुर्त आदि से लागी ।।टेका। धुंधी काल धुंध का मेला, नहीं गुरु नहीं चेला । ताही दिन हम मूड मूंड़ाये, जब वह पुर्ष अकेला ||१|| धरती नहीं जब टोपी लीन्हा, ब्रह्मा नही तब टीका । महादेव का जनमों नाहीं, तब से योग हम सीखा ॥२॥ सतजुग में हम लीन फाउरी, द्वापर लीन्हे डंडा । त्रेता में आडबंद बैंचे, कलियुग फिरे नौ खंडा ॥३॥ काशी में विश्राम कियो हैं, रामानंद चेताया । हंस उबारन आया ।।४।।

अमरपुर ले चलु हो सजना

 अमरपुर ले चलु हो सजना अमरपुर ले चलु हो सजना ।। अमरपुरी की संकरी गलियाँ, अड़बड़ है चलना । ठोकर लगी गुरू ज्ञान सबद की, उघर गये झपना ||१|| वोहि अमरपुर लागी बजरिया, सौदा है करना वोहि अमरपुर संत बसत है, दरसन है लहना२ ॥२॥ संत समाज सभा जहँ बैठी, वहीं पुरूष है अपना कहत कबीर सुनो भाई साधो, भवसागर है तरना ||३||

अवधू बेगम देश हमारा

 अवधू बेगम देश हमारा अवधू बेगम देश हमारा ।। राजा रंक फकीर बादशाह, सबसे कहूँ पुकारा ||टेक|| जो तुम चाहत अहो परमपद, बसिहो देश हमारा । जो तुम आये झीने होके, तजौ मनी को भारा ||१|| ऐसी रहनी रहो रे गोरख, सहज उतरि जाव पारा । सत का नाम है महताबे, साहिब के दरबारा ।।२।। बचना चाहो कठिन काल से, गहो नाम टकसारा कहै कबीर सुनो हो गोरख, सत्यनाम है सारा ॥३॥

जहाँ से आये अमर वह देशवा

 जहाँ से आये अमर वह देशवा जहाँ से आये अमर वह देशवा ।। न तहाँ धरति न पवन अकशवा, न वहाँ चंद सुरज परकशवा न वहाँ ब्राह्मण शूद न बैसवा, न योगी जंगम दरवेशवा ।।२।। न वहाँ ब्रम्हा विष्णु महेशवा, निराकार नहि गौरी गणेशवा ||३|| कहैं कबीर ले आये संदेशवा, सार शब्द गहि चलो वह देशवा ||४||

चलो री वह देसरा

 चलो री वह देसरा चलो री वह देसरा, जहाँ बरसत रंग अपार ।।टेक।। वह देस के औघट घाटी, बिरले पावे पार । सतगुरु सिंध नाम पहिचानो, तन मन धन सब वार ॥१॥ वह देस नौबत बाजे, , तत मत झीनों तार । श्रवन सुनत कटे जम बाधा, साधू शब्द अधार ॥२॥ वह देश में जगमग जगमग, वह शोभा उजियार तहवा हंस करे कौतूहल, पुरुष को रुप निहार ||३|| एक हंस की बरनो शोभा, षोडस रवि छटकार | भोजन सुधा पुहुप की सेज्या, आनंद अखंड अपार ||४| उबरे नाम पाये ते जग ते, भगति होय नियार । कहे कबीर सुनो भाई साधो, आवागमन निवार ॥५॥

महेरम होय सो लख पावे

 महेरम होय सो लख पावे महेरम होय सो लख पावे, संतो ऐसा देस हमारा ||टेक वेद किताब पार ना पावे, कहन सुनन से न्यारा जात बरन कुल किरिया नाही, संध्या नेम अचारा ॥१॥ बिन बादर जहाँ बिजली चमके, बिन सूरज उजियारा । बिना सीप जहाँ मोती उपजै, बिन सुर शब्द उचारा ॥२॥ जैसे बुन्द परे दरिया में, ना मीठा ना खारा । सुन्न शिखर पर बजत संगीता, किंनरी बीन सितारा ||३|| जो जो गये ब्रह्म तेहि दरसे, आगे अगम अपारा । कहें कबीर सुनों भाई साधो, पहुंचे गुरु का प्यारा ||४||

प्रीतम आपुही में पायो

 प्रीतम आपुही में पायो प्रीतम आपुही में पायो। जन्म जन्म की मिटी कल्पना, पूरे गुरु लखायो ।टेक।। जैसे कुँवर मन बिसर गई थी, अभरन कहाँ गँवायो । एक सखी ने बताय दियो तब, मन को तिमिर नसायो ॥१॥ ज्यों युवती सपने सुत ढूंढत, बालक कहाँ गमायो । जाग परी जेहूँ को तेहू, ना कहुँ गयो ना आयो ॥२॥ मृगा पास बसे कस्तूरी, ढूंढत बन बन धायो नासा स्वाद परो जब वाके, फिर आपुन पहलायो ।।३। कहे कबीर मगन भये मनुवां, ज्यों गूंगा गुड़ खायो । वाके स्वाद कहें अब कासों, मन ही मन मुसकायो ||४|

नैनन आगे ख्याल घनेरा

 नैनन आगे ख्याल घनेरा नैनन आगे ख्याल घनेरा। जा कारन जग भरमत डोले, सो साहेब ढिग लेत बसेरा ॥टेक|| पूर रहो असमान धरन लो, जित देखो तित् साहब मेरा ॥१॥ - लखत बने कछु कहत न आवे, जाने दिल बिच महर मेहरा ||२|| अर्ध उर्ध बिच मनुवां राचे, का संध्या का रैन सबेरा ||३|| माला एक दई मोहि सतगुरु, कहें कबीर बिनही कर फेरा ||४||

मोको कहाँ ढूढ़े रे बंदे

 मोको कहाँ ढूढ़े रे बंदे मोको कहाँ ढूढ़े रे बंदे, मैं तो तेरे पास में टेक।। ना तीरथ में ना मूरत में, ना एकांत निवास में । ना मंदिर में ना मस्जिद में, ना काशी कैलाश में ॥१॥ ना मैं जप में ना मैं तप में, ना मैं व्रत उपवास में । ना मैं क्रिया कर्म में रहता, नाहीं योग सन्यास में ||२|| नाही प्राण में, नाही पिण्ड में, ना ब्रह्माण्ड आकाश में। ना मैं भ्रकुटी भंवर गुफा में, सब श्वासन की श्वास में ||३|| खोजी होय तुरत मिल जाऊँ, पल भर की तलास में। कहै कबीर सुनो भाई साधो, मैं तो हूँ विश्वास में ॥४॥

जग देखा ठाठ तम्बूरे का ।।

 जग देखा ठाठ तम्बूरे का जग देखा ठाठ तम्बूरे का ।। पांच तत्व के बना तंबूरा, त्रिगुन तार जहूरे का ||१|| बाजत है पर दीखत नाही, इसमें नहीं सहूरे का ||२|| टुट गये तार उखड़ गई खूटी, मिल गये धूरम धूरे का ||३|| कहें कबीर सुनो भाई साधो, साहेब हाल हजूरे का ||४||

करो रे बन्दे वा दिन की तदबीर

 करो रे बन्दे वा दिन की तदबीर करो रे बन्दे वा दिन की तदबीर' ।। लाल खंभ पर देत ताड़ना, सहि न सके शरीर । मारि के मुगदर प्रान निकाले, नैनन भर आये नीर ||१|| रंगमहल एक कामिन बैठी, कर सिंगार गम्भीर । दुनियां दौलत महल खजाना, संग न जात शरीर ||२|| भवसागर की राह कठिन है, नदिया अति गम्भीर । नाव न बेड़ा लोग घनेरा, खेवन वाला बेपीर ।।३।। जब जमराजा पकर मंगावे, पाँवन परे जंजीर । कहें कबीर सुनो भाई साधो, अब ना करो तकसीर ॥४॥

जियरा पराये बस में

 जियरा पराये बस में जियरा पराये बस में । सास ननद मोरी जनम की बैरन, चरचा करे दसन में ||१|| काम क्रोद मद लोभ मोह बस, नफा नहीं है इसमें ।।२।। पांच पचीस बसे घट भीतर, टरे नहीं निस दिस में ||३|| कहें कबीर सुनो भाई साधो, सतगुरु चरन हिये में ॥४॥

खबर नहीं या जग में पल की

 खबर नहीं या जग में पल की खबर नहीं या जग में पल की। सुकृत कर ले नाम सुमर ले, को जाने कल की ।।टेक।। कौड़ी कौड़ी माया जोरी, बात करे छल की । पाप पुन्य की बांध पोटरिया, कैसे होय हलकी ||१|| तारन बीच चंद्रमा झलके, जोत झलाझल की । एक दिन पंछी निकस जायेगा, मट्टी जंगल की ॥२॥ मात पिता परिवार भाई बंद, तिरिया मतलब की माया लोभी नगर बसत है, या अपने कब की ||३|| यह संसार रैन का सपना, ओस बुन्द झलकी । कहें कबीर सुनो भाई साधो, बातें सतगुरु की ||४||

अपने घट दीपक बार री

 अपने घट दीपक बार री अपने घट दीपक बार री। तत्व को तेल दया की बाती, ब्रह्म अगिन उद्गार रीटेका निर्मल जोत निहार गगन में, तन मन धन सब वार री। सुरति सोहागिन जोग ध्यान में, गुर गम पंथ सुधार री ॥१॥ काम क्रोध मद लोभ मोह की, झोंको ये सब भार री । कहें कबीर सुनो भाई साधो, अपने कंत निहार री ||

कर नैनों दीदार महल में

 कर नैनों दीदार महल में कर नैनों दीदार महल में प्यारा है। साध सोई जिन यह गढ़ लीन्हा, नौ दरवाजा परगट चीन्हा । दसवां द्वारा कुलप जड़ तारा है ।।टेक चंद्र सूर दोउ एक घर लावे, सुषुमन सेती ध्यान लगावे । तिरबेनी के घाट उतर भौपारा है।। १ सूरा होय सो भर भर षीया । गगन मंडल में उर्धमुख कुँवा, निगुरा जात पियास हिये अंधियारा है ।। २ ॥ नेती धोती बस्ती पाई, आसन पवन जुगत से ठहराई । ज्ञान घोड़ा असवार भरम से न्यारा है || ३ || शब्द विहंगम चाल हमारी, कहे कबीर सतगुरु लेव तारी । खुल गये भरम किंवार शब्द झनकारा है ॥ ४ ॥

गगन में आवाज होती झीनी

 गगन में आवाज होती झीनी कोई सुनता है गुरुज्ञानी गगन में आवाज होती झीनी ।।टेक।। पहिले आया नाद बिन्द से, फेर जमाया पानी । सब घट पूरन पूर रहा है, अलख पुरुष निरबानी ।।१।। वहां से आया पत लिखाया, तृष्णा नहीं बुझानी । अमृत छोड विषै रस चाखे, उलटी फांस फंसानी ।।२।। राज करते राजा जैहैं, रुप धरंती रानी । वेद पढन्ते पंडित जैहैं, जैहैं मुनिवर ज्ञानी ।।३।। ओहं सोई बाजा बाजै, त्रिकुटी सुरति. समानी । ईंगला पिंगला सुषमन सोधो, सुन्न ध्वजा फहरानी ||४|| दीद बरदीद हम नजरों देखा, है यह अमर निशानी । कहे कबीर सुनो भाई साधो, यही आदि की बानी ।।५।।

रस गगन गुफा में अजर झरे

 रस गगन गुफा में अजर झरे रस गगन गुफा में अजर झरै । बिन बाजा झनकार उठै जहँ, समुझि परै जब ध्यान धरै।।टेका। बिना ताल जहँ कँवल फुलाने, तेहि चढि हंसा केल करै। बिन चंदा उजियारी दरसै, जहँ तहँ हंसा नजर परै ॥१॥ दसवें द्वारे तारी 'लागी, अलख पुरूष जाको ध्यान धरे। काल कराल निकट नहिं आवै, काम क्रोध मद लोभ जरै ॥२॥ जुगन जुगन की तृष्णा बुझानी, कर्म भर्म आधि ब्याधि टरै। कहैं कबीर सुनो भाई साधो, अमर होय कबहूं न मरै ||३||

नाम हरी का जप ले बन्दे

 नाम हरी का जप ले बन्दे नाम हरी का जप ले बन्दे, फिर पीछे पछतायेगा ||टेका। तू कहता है मेरी काया, काया का गुमान क्या । चाँद सा सुन्दर ये तन तेरा, मिट्टी में मिल जायेगा ||१|| वहाँ से क्या तू लाया बन्दे, यहां से क्या ले जायेगा मुट्ठी बाँध के आया जग में, हाथ पसारे जायेगा ॥२॥ बालापन में खेला खाया, आई जवानी मस्त रहा । बूढ़ापन में रोग सताये, खाट पड़ा पछतायेगा ||३|| जपना है तो जप ले बन्दे, आखिर तो मिट जायेगा। कहत कबीर सुनो भाई साधो, करनी का फल पायेगा ||४||

तू तो नाम सुमर जग लड़ने दे

 तू तो नाम सुमर जग लड़ने दे तू तो नाम सुमर जग लड़ने दे । कोरा कागद काली स्याही, लिखत पढ़त वाको पढ़ने दे।।टेका। चण्डी भैरव सीतला देवी, हाथी चलत है अपनी गति सों, कुकर भुकत वाको भुकने दे ||१|| पत्थर पूजै तो पुजने दे ।।२।। कहत कबीर सुनों भाई साधो, नरक पचत वाको पचने दे ||३||

अब तुम कब सुमरोगे नाम

 अब तुम कब सुमरोगे नाम अब तुम कब सुमरोगे नाम, जिवरा दो दिन का मिहमान । गरभापन में हाथ जुड़ाया, निकल हुआ बेइमान ||टेक।। बालापन में खेल गुमाया, तरूनापन में काम | बुढ़ापन में कांपन लागा, निकल गया अरमान ||१|| झूठी काया झूठी माया, आखिर मौत निदान । कहत कबीर सुनो भाई साधो, यही घोड़ मैदान ॥२॥

नाम को या विधि ध्यान धर

  नाम को या विधि ध्यान धर नाम को या विधि ध्यान धरै ।। जैसे अमली अमल को चाहे, छिन छिन सुर्त करै । जो लग अमली अमल न पावै, तो लग तलफ मरै ||१|| फनि मनियां भई काढ़ धरत है, फैल के ओस चरै । कछू चरै कछु मन तन चितवै, बिछरत तलफ मरै ।।२।। जैसे सती जरै पिय के संग, नेक न सोच करै । आपन चीर पिया को लेके, विहसत जाय जरै ।।३।। जैसे सुरत गगन को चाहे, महलन खोज करै । कहें कबीर सुनो भाई साधो, भूला भटक मरै ।।४।।

हम न मरै मरिहैं संसारा

 हम न मरै मरिहैं संसारा हम न मरै मरिहैं संसारा, हमको मिला जियावन हारा |टेक।। अब न मरूँ मेरा मन माना, मरे सोई जो नाम न जाना ||१|| साकट मरै सन्त जन जीवै, भरि भरि नाम रसायन पीवै ॥२॥ हरी मरै तो हमहुँ मरि हैं, हरि न मरै हम काहे को मरिहैं ॥३॥ कहें कबीर मन मन ही मिलावा, अमर भये सुख सागर पावा ॥४॥

बहुरि हम काहे को आवेंगे

 बहुरि हम काहे को आवेंगे बहुरि हम काहे को आवेंगे। बिछरे पंच तत्व की रचना, तब हम रामहि पावेंगे । पृथ्वी का गुण पानी सोष्या, पानी तेज मिलावेंगे ॥१॥ तेज पवन मिल पवन शब्द मिल, एक हि गलि तपावेंगे । ऐसे हम लोक वेद के बिछुरे, सुन्नहि माहिं समावेंगे ||२|| जैसे जलधि तरंग तरंगनी, ऐसे हम दिखलावेंगे । कहै कबीर स्वामी सुख सागर, हंसहि हंस मिलावेंगे ||३||

साधो कर्ता कर्म से न्यारा

 साधो कर्ता कर्म से न्यारा साधो कर्ता कर्म से न्यारा । आये न जाये मरे नहि जनमे, ताका करो विचारा टेक राम के पिता दशरथ जो कहिये, दशरथ कौने जाया । दशरथ पिता राम के दादा, कहो कहाँ से आया ||१ राधा रुखमिनि कृष्ण की रानी, कृष्ण दोउ का पिया । सोलह सहस गोपी उन भोगी, भये काम के कीरा ॥२ वासुदेव पित मात देवकी, नन्द मेहर घर आयो । ताको करता कैसे कहिये, करम के हाथ बिकायो ||३| जाके गगन धरनि है सहसो, ताका सकल पसारा। अनहद नाद शब्द धुन जाके, सोई खसम हमारा ||४|| सतगुरू शब्द हिरदय दृढ़ राखो, करो विवेक विचारा । कहैं कबीर सुनो भाई साधो, है सत्य पुरूष अपारा ||५||

करम गति टारे ना टरे

 करम गति टारे ना टरे करम गति टारे ना टरे ।। गुरु वशिष्ठ महामुनि ज्ञानी, लिख लिख लग्न धरे । सीता हरन मरन दशरथ को, बन बन बिपति परे ||१|| कहाँ वे राहू कहाँ वे रवि शशि, आन संजोग परे । सतवादी हरिचन्द राजा, नीच घर नीर भरे ॥२॥ दुरवासा ऋषि श्राप दियो है, यदु कुल नास करै । पंडवन के हरि सदा सारथी, सो भी बन बिचरै ॥३॥ तीनो लोक कर्म गति के बस, जीव से काह सरे । कहें कबीर सुनो भाई साधो, भूला भटक मरे ।

चलना है दूर मुसाफिर

 चलना है दूर मुसाफिर चलना है दूर मुसाफिर काहे सोवै रे ॥ चेत अचेत नर सोच बावरे, बहुत नींद मत सोवै रे । काम क्रोध मद लोभ में फंस के, उमरिया काहे खोवै रे ||१|| सिर पर माया मोह की गठरी, संग दूत तेरे होवै रे । सो गठरी तेरी बीच में छिन गई, मूड़ पकरि कहा रोवै रे ||२|| रास्ता तो वह दूर विकट है, चलब अकेला होवै रे । संग साथ तेरे कोई न चलेगा, काकै२ डगरिया जोवै रे ॥३॥ गहरी नदिया नाव पुरानी, केहि विधि पार तू होवै रे। कहै कबीर सुनो भाई साधो, ब्याज धोखे मूल मत खोवै रे ||४||

हीरा तन पाय तूने सुमति गँवाई

 हीरा तन पाय तूने सुमति गँवाई हीरा तन पाय तूने सुमति गँवाई ।। नौ दस मास गर्भ मे राखे, नर्क योनि भुगताई । नर्क योनि से बाहर काढे, मात पिता की सुध बिसराई ॥१॥ बालापन में खेल गमाये, पीछे जवानी आई । जो माता ने दूध पिलाई, वो माता को लात चलाई ॥२॥ वृद्ध भये कफ आवन लागे, द्वारे    खाट बिछाई पार परोसी सब जुर आये, घर के कहैं याहि मौत न आई ॥३॥ भवसागर की अगम बात है, जाके पार पार न न पाई । कहें कबीर सुनो भाई साधो, छोड़ चले सबही ठकुराई ||४||

रहना नहीं देश बिराना है

 रहना नहीं देश बिराना है रहना नहीं देश बिराना है ।। यह संसार कागद की पुड़िया, बूंद पड़े घुल जाना है ॥१॥ यह संसार कांटे की बाड़ी, उलझि उलझिमरि जाना है॥२॥ यह संसार झाड़ और झखिर, आग लगे बरि जाना है ||३|| कहत कबीर सुनो भाई साधो, सतगुरू नाम ठिकाना है ||४||

बटाऊ रे चलना आज कि काल्हि

 बटाऊ रे चलना आज कि काल्हि बटाऊ' रे चलना आज कि काल्हि । समुझि न देखे कहा सुख सोवे, रे मन राम संभालि || जैसे तरुबर रैन बसेरा, पंछी बैठे आहीं । ऐसे यह सब हाट पसारा, आप ही आप जाहीं ||१|| कोई नहीं तेरा सजन संघाति, जनि खोवे मन मूल । यह संसार देखि जनि भूले, सब ही सेमल फूल ||२|| तन नहीं तेरा धन नहीं तेरा, काह रहयो इहि लागी । कबीर हरि बिनु क्यों सुख सोवे, काहे न देखे जागी ॥३॥

साधो यह मुरदों का गाँव

 साधो यह मुरदों का गाँव साधो यह मुरदों का गाँव ।। पीर मरे पैगम्बर मर गये, मर गये जिन्दा योगी चन्दो मरिहै सुरजो मरिहैं, तैतिस कोटि देवता मर गये, राजा मरिहै परजा मरिहै', मरिहैं वैद्य औ रोगी ||१|| मरिहैं धरनि आकाशा | चौदह भुवन के चौधरि मरिहैं, इनहूँ की क्या आशा ||२|| नौ भी मर गये दस भी मर गये, मर गये सहस अठासी । पड़ी काल की फांसी ||३|| नाम अनाम रहत है नित ही, दूजा तत्त्व न होई । कहैं कबीर सुनो भाई साधो, भटक मरो मत कोई ||४||

झीनी झीनी बीनी चदरिया

 झीनी झीनी बीनी चदरिया झीनी झीनी बीनी चदरिया ॥ काहे के ताना.काहे के भरनी, कौन तार के बीनी चदरिया । इंगला पिंगला ताना भरनी, सुषमन तार से बीनी चदरिया ॥१॥ अष्ठ कमल दल चरखा डोलै, पाँच तत्व गुण तीनी चदरिया। सांई को बिनत मास दस लागे, ठोक ठोक के बीनी चदरिया ॥२ सो चादर सुर नर मुनि ओढ़िन, ओढ़ि के मैली कीनी चदरिया। दास कबीर यतन से ओढ़ि, ज्यों की त्यों धरि दीनी चदरिय ॥

हमको ओढ़ावै चदरिया

 हमको ओढ़ावै चदरिया हमको ओढ़ावै चदरिया, चलती बिरिया टेक॥ प्रान राम जब निकसन लागे, उलट गई दोनों नैन पुतलिया ||१|| भीतर से जब बाहर लाये, छूट गई सब महल अटरिया ॥२॥ चार जना मिलि खाट उठाये, रोवत ले चले डगर डगरिया ॥३॥ कहत कबीर सुनो भाई साधो, संग चली बस सूखी लकड़िया ॥४॥

इस तन धन की कौन बड़ाई

 इस तन धन की कौन बड़ाई इस तन धन की कौन बड़ाई, देखत नैनों में मिट्टी मिलाई ।।टेक कंकर चुन चुन महल बनाया, आपही जाकर जंगल सोया ॥१ हाड़ जरे जैसे लाकर झूरी, केस जरे जस घास की पूरी ॥२ यह तन धन कछु काम न आई, ताते नाम जपो लौलाई ||३|| कहें कबीर सुन मेरे गुनिया, आप मुवे पाछे डूब गई दुनिया ||४||

काया चलत प्राण काहे रोई

 काया चलत प्राण काहे रोई काया चलत प्राण काहे रोई।। तुम्हरे संग बहुत सुख कीन्हा, नित उठ मल मल धोई । तुम तो हंस चले घर अपने, हमको चलत बिगोई ।। हंस कहै सुन काया बौरी, मेरो तेरो संग न होई । तोसे घट बहुतेरे छोड़े, संग न लागे कोई ॥ लट छरियाय वाके माता रोवे, खाट पकर वाके भाई । आंगन में जाके तिरिया रोवे, हंस अकेला जाई ।। सिव सनकादिक औ ब्रह्मादिक, शेष सहस मुख होई जिन जिन देह धरी दुनिया में, थिर ना रहिया कोई । पाप पुन्य दोउ जन्म संघाती, समुझ देख नर लोई कहे कबीर प्रभु पूरण की गति, बुझे बिरला कोई ।

जाग पियारी अब का सौवै,

 जाग पियारी जाग पियारी अब का सौवै, रैन गई दिन काहे को खोवै ।।टेड जिन जागा तिन मानिक पाया, तैं बौरी सब सोइ गँवाया ॥ पिय तेरे चतुर तु मूरख नारी, कबहुँ न पिया की सेज सँवारी ।। ते बौरी बौरावन कीन्हो, भर जोबन पिय अपन न चीन्हो ॥३ जागु देखु पिय सेज न तेरे, तोहि छाडि उठि गये सबेरे ॥४ कहै कबीर सोई धन जागै, सबद बान उर अंतर लागे ॥५

माया महा ठगिनी हम जान

 माया महा ठगिनी हम जान माया महा ठगिनी हम जानी। तिरगुन फांस लिये कर डोले, बोले मधुरी बानी || केशव के कमला होय बैठी, शिव के भवन भवानी पंडा के मूरत होय बैठी, तीरथ हूँ में पानी जोगी के जोगीन होय बैठी, राजा के घर रानी काहू के हीरा होय बैठी, काहू के कौड़ी कानी ||२|| भक्ता के भक्तिन होय बैठी, ब्रह्मा के ब्रह्मानी कहे कबीर सुनो भाई साधो, यह सब अकथ कहानी ||३||

ठगनी का नैना झमकावे

 ठगनी का नैना झमकावे ठगनी का नैना झमकावे, तोरे हाथ कबीर न आवे ।। कद्दू काट मृदंग बनावे, नीबू काट मजीरा पाँच तोरई मंगल गावे, नाचे बालम खीरा रुपा पहिर के रुप दिखावे, सोना पहिर ललचादे गले डार तुलसी की माला, तीन लोक भरमावे मूसों की सभा सर्प एक नाचे, मेंढक ताल लगावे । चोली पहिर के गदही नाचे, ऊँट विष्णु पद गावे ||३|| वृक्ष चढ़े मछली फल तोड़े, कछुवा भोग लगावे । कहें कबीर सुनो भाई साधो, बिरला अर्थ लगावे ||४|| .

माया काली नागिन

 माया काली नागिन माया काली नागिन, जिन डसिया सब संसार |टेका इंद्र डसे ब्रम्हा डसे, नारद डसिया व्यास बात कहत शिव को डसी, जाके छिन एक बैठी पास ||१|| कंस डसे शिशुपाल डसै, रावन डसिया जाय । इस मस्तक जाके भूमि परै, ताके लंका दई लुटाय ||२|| बड बड गारुड सब डसे, कोई न ट नीकलन हार । कच्छ देश गोरख डसे. जाका जोग अपार चुन चुन मारे चतुर सूरमा, जाकी करे जग आस तोसे गरीब की कौन गिने, कहे कबीर बिचार ।।

जग में या विधि साधु कहावे

 जग में या विधि साधु कहावे जग में या विधि साधु कहावे । दया सरुप सकल जीवन पर, और दृष्टि न आवे ||टेका झलकत दशा ब्रह्म के जामे, सबही के मन भावे । शीतल वचन सर्व सुखदाई, आनंद प्रेम बढ़ावे ||१|| जाको निसदिन प्रेम भक्ति है, दूजा देव ना ध्यावे । कहें कबीर हम वा घट परगट, आप अपन पो पावे ॥

पानी बीच बताशा संतो

 पानी बीच बताशा संतो पानी बीच बताशा संतो, तन का यही तमाशा है |टेका। क्या ले आया क्या ले जायगा, क्यों बैठ पछताता है मुट्ठी बांधे आया बन्दे, हाथ पसारे जाता है ||१|| किस की नारी कौन पुरुष है, कहाँ से नाता लाया है बड़े बिहाल खबर ना तन की, बिरही लहर बुझाता है ॥२॥ इक दिन जीना दो दिन जीना, जीना बरस पचासा है। अंतकाल बीसा सौ जीना, फिर मरने की आसा है ।।३ ज्यों ज्यों पाँव धरो धरनी में, त्यों त्यों काल नियराता है। कहे कबीर सुनो भाई साधो, गाफिल गोता खाता है |

पानी में मीन पियासी

 पानी में मीन पियासी पानी में मीन पियासी, मोहि सुन सुन आवत हांसी ।।टेक आतम ज्ञान बिना नर भटके, कोई मथुरा कोई काशी । जैसे मृगा नाभि कस्तूरी, बन बन फिरत उदासी ॥ जल बीच कवल कँवल बीच कलियाँ, तापर भँवर निवासी । सो मनवस त्रैलोक भयो है, यती सती सन्यासी ।।२।। ||३|| जाको ध्यान धरे विधि हरिहर, मुनिजन सहस अठासी । सो तेरे घट मांहि विराजे, परम पुरूष अविनासी ||३|| है हाजिर तोहे दूर बतावे, दूर की बात निरासी । कहै कबीर सुनो भाई साधो, गुरू बिन भरम न जासी ॥४||

धुन सुन के मनुवा मगन हुआ

धुन सुन के मनुवा मगन हुआ धुन सुन के मनुवा मगन हुआ । लाग समाधि रहो गुरु चरनन, अंदर का दुख दुर हुआ ||१|| सार सब्द के डोरी लागी, ता चढ़ हंसा पार हुआ ||२|| सुन्न शिखर पे झालर झलके, झरत अमी रस प्रेम चुवः ॥३॥ कहे कबीर सुनो भाई साधो, चाख चाख अलमस्त हुआ

गुरु जननी मैं बालक तेरो

 गुरु जननी मैं बालक तेरो गुरु जननी मैं बालक तेरो, काहे न अवगुन बगसहु मेरो ।।टेका। बालक मलीन जो अधिक सतावै, हँस हँस माता कंठ लगावे ||१|| केश पकरि के करै नख घाता, तोऊ न हेत उतारै माता ।।२।। कोटिन अवगुन बालक करई, मात-पिता चित एक न धरई ||३|| बालक को विष दे महतारी. रक्षा को अब करे हमारी ||४|| कहे कबीर जननी की बाता, बालक दुखित दुखित भई माता॥५॥

गुरू बिन कौन बतावै बाट

 गुरू बिन कौन बतावै बाट गुरू बिन कौन बतावै बाट, बड़ा विकट यम घाट ||टेका। भ्रांति पहाड़ी नदिया बिच में, अहंकार की लाट काम क्रोध दो पर्वत ठाढ़े, लोभ चोर संघात ||१|| मद मत्सर का मेघा बरसत, माया पवन बड़े डाट । कहत कबीर सुनो भाई साधो, क्यों तरना यह घाट ||२||

गुरू ने पठाया चेला

 गुरू ने पठाया चेला नई नियामत लाना ।। पहली नियामत' लकड़ी लाना, जंगल झाड़ के पास न जाना। गीली सूखी छोड़ के चेला, गठडी बाँध के लाना ॥१॥ दूसरी नियामत जल ले आना, कुआं बावड़ी के पास न जाना। नाला नदी बचा के बच्चा, तुम्बा भरके लाना ॥२॥ तीसरी नियामत आटा लाना, गाँव नगर के पास न जाना। कुटा पीसा छोड़ के चेला, झोली भरके लाना ||३|| चौथी नियामत कलियाँ लाना, जीव अंकुर के पास न जाना। गीली सूखी छोड़ के चेला, टोकरि भरके लाना ||४|| पाँचवी नियामत अग्नि लाना, चकमक लोह के पास न जाना। ताता शीरा छोड़ के चेला, अगीठी भरके लाना ॥५॥ छठवी नियामत दर्शन लाना, मस्जिद मन्दिर के पास न जाना। साधु फकीर छोड़ के चेला, नयना भर के लाना ॥६॥ कहैं कबीर सुनो भाई साधो, जिन लिन्हा तिन जाना । जो यह पद का अर्थ लगावे. पावे पद निर्वाना ||७|| 0.

गुरु दरिया में नहाना हो

 गुरु दरिया में नहाना हो गुरु दरिया में नहाना हो, जासे दुरमत भागे ॥टेक गुरु दरिया में सदा जल निरमल, पैठत उपजत ज्ञाना हो ॥१॥ जब लग गुरु दरिया न पावे, तब लग फिरत भुलाना हो ॥२॥ कोटिन तीरथ गुरु के चरनन, श्रीमुख आप बखाना हो ॥३॥ कहे कबीर सुनो भाई साधो, अजर अमर घर जाना हो ॥४॥

तुम देखो लोगों भूल भूलैया का तमाशा

 तुम देखो लोगों भूल भूलैया का तमाशा तुम देखो लोगों भूल भूलैया का तमाशा ।। ना कोई आता ना कोई जाता, झूठा जगत का नाता । ५ ना काहू की बहन भानजी, ना काहू की माता ।।१।। ड्योढ़ी लग तेरी तिरिया जावे, पौली लग तेरी माता । मरघट तक सब जाये बराती, हंस अकेला जाता ||२|| एकतई ओढ़े दोतई ओढ़े, ओढ़े मलमल खासा । शाल दुशाला नित ही ओढ़े, अन्त खाक मिल जाता ||३|| कौड़ी कौड़ी माया जोड़ी, जोड़े लाख पचासा । कहत कबीर सुनो भाई साधो, संग चले न माशा ।।४।।

जोगी मन ना रंगा रंगाये कपड़ा

 जोगी मन ना रंगा रंगाये कपड़ा जोगी मन ना रंगा रंगाये कपड़ा। तिल तिल जो सरी बनाये, सिरजनहार नहीं पकड़ा ।।टेका या ठिकरा के मर्म न जाने, भटकत फिरे जंगल सेहड़ा। सब सुख छोड़ जंगल में बैठे, काम जराय भय हिजड़ा ॥१॥ आसन मार डिंभ' धर बैठे, दाढ़ी रखाय भये बकरा कहे कबीर सुनो भाई साधो, साहेब छोड़ पुजे पथरा ||

भाई रे दुई जगदीश कहां से आया

 भाई रे दुई जगदीश कहां से आया भाई रे दुई जगदीश कहां से आया, कहु कौने भरमाया । अल्लह राम करीमा केशव, हरि हजरत नाम धराया ।।टेका। गहना एक कनक ते गहना, यामे भाव न दूजा । कहन सुनन को दुई कर थापे, एक निमाज एक पूजा ॥१॥ वोही महादेव वोही मुहम्मद, ब्रम्हा आ aदम कहिये । को हिन्दू को तुरक कहावे, एक जमी पर रहिये वेद किताब पढ़े वे कुतबा, वे मुलना वे पांडे बेगर बेगर नाम धराये, एक माटी के भाडे । कहे कबीर ये दोनों भूले, रामहि किनहु न पाया। ये खस्सी' वे गाय कटावे, वादहि जनम गमाया ||

पंडित बाद बदे सो झूठा

 पंडित बाद बदे सो झूठा पंडित बाद बदे सो झूठा । राम कहे जगत गति पावे, खांड़ कहे मुख मीठा पावक कहे पाँव जो डाहे, जल कहि तृषा बुझाई भोजन कहे भूख जो भागे, तो दुनिया तर जाई नर के संग सुवा हरि बोले, हरि प्रताप ना जाने जो कबहुँ उड़ि जाय जंगल में, सपने सुर्त ना आने । बिन देखे बिन दरस-परस बिन, नाम लिये का होई - धन के कहे धनिक जो होवे, निरधन रहे न कोई ||३|| सांची प्रीत विषय माया सो. हरि भक्तन के फांसी । कहें कबीर एक नाम भजे बिन, बांधे जमपुर जासी ||४||

मन तोहि किस विधि समझाऊँ

 मन तोहि किस विधि समझाऊँ मन तोहि किस विधि समझाऊँ ।। सोना होय सोहाग मंगाऊँ, बंकनाल रस लाऊँ । ज्ञान शब्द की फूंक चलाऊँ, पानी कर पिघलाऊँ ||१|| घोड़ा होय लगाम मंगाऊँ, ऊपर जीन कसाऊँ । होय सवार तेरे पर बैठू, चाबुक देई चलाऊँ ॥२॥ हाथी होय जंजीर गढ़ाऊँ, चारों पैर बंधाऊँ । होय महावत सिर पर बैलूं, अंकुश लेइ चलाऊँ ||३|| लोहा होय ऐरण मंगाऊँ, ऊपर धुवन धुवाऊँ । धुआँ की घनघोर मचाऊँ, यन्तर तार खिचाऊँ ॥४॥ ४

मन तू क्यों भूला रे भाई

 मन तू क्यों भूला रे भाई मन तू क्यों भूला रे भाई, तेरी सुधिबुधि कहाँ हिराई  जैसे पक्षी रैन बसेरा, बसै वृक्ष पर आई । भोर भई सब आप आपने, जहाँ तहाँ उड़ि जाई || सपनें में तोहि राज मिल्यो है, हाकिम हुकुम दुहाई । जागि परे तब लाव न लशकर, पलक खुले सुधि पाई ॥ मात पिता बन्धु सूत तिरिया, ना कोई सगो सगाई यह तो सब स्वारथ के संगी, झूठी लोक बड़ाई । सागर माँही लहर उठत है, गिनती गिनी न जाई कहैं कबीर सुनो भाई साधो, दरिया लहर समाई

मन मस्त हुआ तब क्यों बोले

 मन मस्त हुआ तब क्यों बोले मन मस्त हुआ तब क्यों बोले ।। हीरा पायो गाँठ गठियाओ, बार बार वाको क्यों खोले ॥१॥ हलकी थी तब चढ़ी तराजू, पूरी भई तब क्यों तोले ||२|| सुरत कलारी भई मतवारी, मदवा पी गई बिन तोले ||३|| हंसा पाये मानसरोवर, ताल तलैया क्यों डोले ||४|| तेरा साहिब है घट मांही, बाहर नैना क्यों खोले ॥५॥ कहें कबीर सुनो भाई साधो, साहिब मिल गये तिल ओले ॥६॥

मन फूला फूला फिरे जगत में

 मन फूला फूला फिरे जगत में मन फूला फूला फिरे जगत में, नाता रे ॥टेक। माता कहै यह पुत्र हमारा, बहन कहै बीर' मेरा । भाई कहै यह भुजा हमारी, नारी कहै नर मेरा पेट पकरि के माता रोवै. बाँह पकरि के भाई लपटि झपटि के तिरिया रोवै, हंस अकेला जाई जब लग जीवै माता रोवै, बहन रोवै दस मासा । तेरह दिन तक तिरिया रोवै. फेर करै घर वासा ॥ चार गजी चादर मंगवाई, चढ़ा काठ की घोड़ी। चारो कोने आग लगाई, , फूंक दियो जस होरी ॥ हाड़ जरै जस जंगल लकड़ी, केस जरै जस घासा । सोना जैसी काया जर गई, कोई न आया पासा || घर की तिरिया ढूंढन लागी, ढूँढ़ फिरी चहुँ देशा

मन लागो मेरो यार फकीरी में

 मन लागो मेरो यार फकीरी में मन लागो मेरो यार फकीरी में ।। जो सुख पायो नाम भजन में, सो सुख नाहिं अमीरी में | भली बुरी सबकी सुन लीजे, कर गुजरान गरीबी में ||१|| प्रेम नगर में रहन हमारी, भलि बनि आई सबूरी में । हाथ में कूण्डी बगल में सोंटा, चारो दिशा जागिरी में ||२|| आखिर यह तन खाक मिलेगा, कहाँ फिरत मगरूरी में । कहें कबीर सुनों भाई साधो, साहब मिले सबूरी में ||३|| 211

मन रे तू नेकी कर ले

 मन रे तू नेकी कर ले मन रे तू नेकी कर ले, दो दिन का मेहमान टेका। जोरु लड़का कुटुंब कबीला, दो दिन का तन मन का मेला। ४८ अंतकाल उठ चला अकेला, तज माया मंडान ||१|| कहाँ से आया कहाँ जायेगा, तन छूटे मन कहाँ रहेगा। आखिर तुझको कौन कहेगा, गुरु बिन आतम ज्ञान || कौन तुम्हारा सच्चा साँई, झूठा है यह सकल पसारा। कहाँ मुकाम और कहाँ ठिकाना, का बस्ती का नाम ||३|| रहट माल पनघट जो भरता, आवत जात भरा औरीता। जुगन जुगन तू मरता जीता, क्यों करता अभिमान ||४|| लख चौरासी देख तमासा, ऊँच नीच घर लेता बासा। कहें कबीर सुनो भाई साधो, जपना सद्गुरु नाम ॥५॥

मन रे तू बुझ शब्द उपदेशा

 मन रे तू बुझ शब्द उपदेशा मन रे तू बुझ शब्द उपदेशा । सार शब्द औ गुरुमुख बानी, ताका गहो संदेसा ॥टेक। जाहि शब्द को मुनिवर खोजे, ब्रह्मादिक सो ज्ञानी । सोई शब्द गुरु चरणन लागे, भक्ति हेत कर प्रानी ॥१॥ प्रथमें दया दीनता आवे, हांसी मिथ्या त्यागी । आतम चीन्ह परातम जाने, सदा रहे अनुरागी ।।२।। पद प्रतीत औ शब्द कसौटी, निस दिन बिरह बिरागी।. जहाँ को अर्थ जहाँ लो बूझे, जहाँ लागी जहां लागी ||३|| कहें कबीर यह शब्द को बूझे, मानै सीख हमारी । काल दुकाल तहाँ न ब्यापै, सदा करों रखवारी ॥४॥ ।

मन रे तू धीरज क्यों न धरे

 मन रे तू धीरज क्यों न धरे मन रे तू धीरज क्यों न धरे ।। शुभ   औ अशुभ कर्म पूर्व लेखे, रती घटे न बढ़े । होनहार होवे सो होवे, चिन्ता काहे करे ||१|| पशु पक्षी औ कीट पतंगा, सबकी खबर करे । गर्भवास में रक्षा कीन्ही, सो कैसे बिसरे ॥२॥ तुम तो हंस वोही साहेब के, भटकत काहे फिरै । कारज नाहिं सरै ||३|| सतगुरु छोड़ और को ध्यावे, मात पिता सुत सम्पत दारा, मोह के जार जरे । समुझ देख मन कोई न अपना, धोखा में काहि परे ||४|| संतन शरन गहो मन मोरे, कोटन व्याधि हरे । कहें कबीर सुनो भाई साधो, सहजे जीव तरे ॥५॥

मन रे तू मन ही में उलट समाना

 मन रे तू मन ही में उलट समाना मन रे तू मन ही में उलट समाना । या मन हस्ती जंगल बासा, खोज सकल फल खाता। जो बस परे महावत के रे. , दे अंकुश मुरकाता' || या मन जोगी या मन भोगी, या मन देवी देवा । या मन उलट होत बैरागी, करै गुरु की सेवा ||२|| मन के खोज कोई न पावे, शिव सनकादिक ब्रम्हा । अपरमपार पार नहिं पावे, अगम अगोचर महिमा ||३|| नियरे के दूर दूर के नियरे, जिन जैसा अनुमाना । ओर बतिया के चढ़े बडेरी, जिन रे पिया तिन जाना ||४|| अनुभव कथा कौन से कहिये, है कोई संत विवेकी । कहैं कबीर गुरु दिये पलीता, वा घर बिरला पेखी ||५||

मन तू समझ के लाद लदनियां

 मन तू समझ के लाद लदनियां । मन तू समझ के लाद लदनियां ।। 'पीना होय इहाँ तू पीले, आगे देस निपनियां । सौदा होय इहां कर लेना, आगे हाट न बनियां ||१|| बड़ बड़ नायक लाद गये हैं, तेरी बात कितनियां । जमराजा के दूत फिरत है, तोड़ डारे गरदनियां ॥२॥ घर के लोग जगाती हो के, छीन लेत परदनियां । कहें कबीर सुनो भाई साधो, शब्द में सुरत समनियां | INE

मन रे तू अब की बेर सम्हारो

 मन रे तू अब की बेर सम्हारो मन. रे तू अब की बेर सम्हारो । जन्म अनेक दगा में खोयो, बिन गुरु बाजी हारो ||टेक।। बालापने ज्ञान नहि तन में, जब जनमें तब बारो । तरुनापन तामस में खोयो, कीजे कूच नगारो ||१|| सुत दारा मतलब के साथी, ताको कहत हमारो । ४३ तीनलोक और भुवन चतुरदस, सबहि काल को चारो ||२|| पूर रह्यो जगदीश जगत गुरु, मिले रहे औ न्यारो । कहे कबीर सुनो भाई साधो, सब घट देखनहारो ||३||
 हंसा यह पिंजरा नहिं तेरा हंसा यह पिंजरा नहिं तेरा ।। कंकड़ चुनि चुनि महल बनाया, लोग कहे घर मेरा । ना घर तेरा ना घर मेरा, चिड़िया रैन बसेरा ॥१॥ बाबा दादा भाई भतीजा, कोई न चले संग तेरा। हाथी घोड़ा माल खजाना, पड़ा रहे धन घेरा रा मात पिता स्वारथ के लोभी, करते मेरा मेरा । कहैं कबीर सुनो भाई साधो, इक दिन जंगल डेरा ||३||

हंसा आप में आप निबेरो

 हंसा आप में आप निबेरो हंसा आप में आप निबेरो । आपन रुप देख आपहिं में, नौ निधि होवे चेरो ||टेक जागृत रहो सदा दिल मांही, ज्ञान रसिक ढिग हेरो । आपा मध्ये आप निहारो, आपा मेट सबेरो ॥ सुरत आगे निरत कर ले, सिद्ध मिले बहु तेरो । गृह बन बैठे काम धाम में, राह चलत पग हेरो ।। ४ जागत लागो सोवत सपने, फहम' करे फल केरो । सुषमन के घर फहम करे जब, तुरिया चित चितेरो ||३|| फहम आगे फहम पीछे, फहम दहिने हेरो । फहम पर जो फहम देखै, सो फहम है मेरो ||४|| अष्टौ सिद्धि नव निधि पावै, सतगुरु फहम निबेरो । कहें कबीर भुंगी के कीड़ा, बहुरन कीट हि घेरो ।।५।। का

हंसा करले शब्द बसेरा

 हंसा करले शब्द बसेरा हंसा करले शब्द बसेरा । रोम रोम यमदूतन घेरा, ज्यों कांटे ढिग' केरा ||टेका। आहि निशि बसो शब्द के मांही, गुरु मुख शब्द नबेरा । १ गुरु के वचन शिष्य जो माने, शब्द सुरत सो हेरा ।।१।। शब्द सार गुरु बचन संदेसा, ताहि मध्य कर डेरा । २|गुरु शिष्य को पार उतारे, मिटे सकल जग फेरा ।।२।। गुरु के शब्द हिये गहि राखे, त्रास कटे बहु तेरा । ताके खुले नैन हिरदे के, दिव्य दृष्टि सो हेरा ।।३।। सदा अधीन रहे संतन सो, जस भुंगी वरन फेरा । जैसे चित्र चितेरा ||४ दरसे ताहि शब्द निस बासर, निस बासर जागे औ लागे, सिर पर शब्द उजेरा । कहें कबीर जो सतगुरु सेवे, सो सतगुरु हित तेरा ॥५

पी ले प्याला हो मतवाला

 पी ले प्याला हो मतवाला पीले प्याला हो मतवाला, प्याला नाम अमीरस का रे ||टेका पाप पुण्य भुगतन को आया, कौन तेरा और तू किसका रे। जब लग श्वांस नाम गुन गावो, धन यौवन सपना निशि का रे।।१ बालापन सब खेल गँवाया, तरुण भया नारी बस का रे। वृद्ध भया तन काँपन लागे, खाट पड़ा न जाये खिसका रे ॥२॥ नाभि कमल बिच है कस्तूरी, जैसे मिगर फिरै बन का रे। बिन सतगुरु इतना दुख पाया, वैद मिला नहीं इस तन का रे॥३॥ जनम मरन से बचना चाहो, तो छोड़ो कामिनी का चसका रे । कहें कबीर सुनो भाई साधो, नख सिख भरा विष का रे ॥४॥

अवधू कहि बतलाऊं कैसा

 अवधू कहि बतलाऊं कैसा अवधू कहि बतलाऊं कैसा, एक अगम अगोचर ऐसा ।।टेक जो कहिये सो है भी नाही, है सो कहा न जाई । . । सैना बैना कासो कहिये, । ज्यों गूंगे गुड़ खाई ||१|| काजी हाथ कितेब कुराना, पंडित वेद पुराना । वह अक्षर लिखबे में नाहीं, मात्रा लगे न काना ||२|| दृष्टि न आवे मुष्टि न आवे, २० विनसै नहि होय नियारा । ऐसा ज्ञान कथै गुरू मेरे, संतो करो विचारा ||३|| कोई ध्यावे निराकार को, ३) कोई ध्यावे ओंकारा । वो तो पद दोऊ से न्यारा, जानै जाननहारा ||४|| नाद वेद लों पढ़ना गुनना, औ चतुराई भीना । कहे कबीर वह पड़य न परलै, सो सत बिरले चीन्हा ॥५॥

संतो शब्द साधना कीजै

 संतो शब्द साधना कीजै ३ संतो शब्द साधना कीजै । जाहि शब्द से प्रगट भये सब, सोई शब्द गहि लीजै ॥टेक।। शब्द का भेद नहिं पाद 102 शब्दहि वेद पुरान बखाने, शब्दहि सब ठहरावे शब्दहि सुर नर मुनिजन गावै, शब्दै गुरु शब्द सुन शिष भये, शब्दै सो बिरला बूझै। सोई गुरु सोई शिष महातम, अंतरगत जब सूझै२ शब्दै शब्द शब्द बहु अंतर, सार शब्द मथ लीजै । कहें कबीर जेहि सार शब्द नहिं, धिक् जीवन जग जीजै ॥३

संतो देखत जग बौराना

 संतो देखत जग बौराना संतो देखत जग बौराना। साँच कहौं तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना ॥टेक नेमी देखा धरमी देखा, प्रातः करै असनाना । आतम मारि पषाणे पूजै, उनमें कछु न ज्ञाना ॥१॥ बहुतक देखे पीर औलिया, पढ़े कितेब कुराना । कर मुरीद तदबीर बतावै, उनहुँ खुदा न जाना ॥२॥ आसन मार डिंभ' धरि बैठे, मन में बहुत गुमाना । पीतर पाथर पूजन लागे, तीरथ गर्व भुलाना ॥३॥ टोपी पहिरे माला पहिरे, छाप तिलक उनमाना। साखी शब्द गावत भूले, आतम खबर न जाना ||४|| घर घर मंतर देत फिरत है. महिमा के अभिमाना । गुरु सहित शिष्य सब बूड़े, अंत काल पछिताना ।।५।। हिंदू कहे मोहि राम पियारा, तुरक कहे रहिमाना । आपस में दोऊ लर लर मूवे, मर्म काहू न जाना ।।६।। केते कहों कहा ना माने, ई सब भर्म भुलाना । ॥ कहे कबीर सुनो भाई साधो, सहजे सहज समाना ।।७।।

संतो माया तजी न जाई

 संतो माया तजी न जाई संतो माया तजी न जाई, जैसे बेल वृक्ष लपटाई ॥टेका। काम तजे तो क्रोध न छूटे, क्रोध तजे तो लोभा । लोभ तजे तो आसा मांडे, मान बड़ाई शोभा ॥१॥ गृह तजे तो मढ़ी मनावे, उदय अस्त दे फेरी । ३३ सद्गुरू कबीर भजन सागर कुटुम्ब तजे शिष शाखा चाहै, मन माया ने घेरी ।।२।। देखत पैसा हाथ न छुवै, फूटी फावरी ताके । आदर मान कछु ना चाहै, 11 झीनी माया झाँके ||३|| कर्म संयोग भये ना पावत, तौ लग माया त्यागी । आशा तृष्णा मिटि न मन की, का गेही बैरागी ||४|| स्वामी शिष शाखा के कारन, सौ योजन चल जावै। जो छुटे तो सीधे छुटे, ॥ हिरदय ज्ञान समावै ॥५॥ माया त्यागे मन बैरागी, शब्द में सुरत समानी । | कहे कबीर सोई संत जौहरी, जिन झूठी कर जानी ॥६।।

संतो निरंजन जाल पसारा

 संतो निरंजन जाल पसारा संतो निरंजन जाल पसारा । स्वर्ग पताल रचियो मृत्युमंडल, तीन लोक विस्तारा ||टेक।। ब्रह्मा विष्णु शम्भू प्रकट कर, तेहि दियो सिर भारा । ठाँव ठाँव तीरथ व्रत रोपे, ठगवे को संसारा ||१|| चौरासी लख जीव फंदाने, कबहुं न होय उबारा । जार बार भसम कर डारे, फिर फिर दे अवतारा ||२|| आवागमन रहे उरझाई, बूड़े भव मंझारा । सतगुरु शब्द के बिना नर चिन्हे, कैसे उतरे पारा ।।३।। माया फांस सकल जीव फांसे, आप भये करतारा । अमर लोक जहां पुरुष विदेही, जहां के मूंदो द्वारा ॥४॥ ब्रम्हा विष्णु महेश्वर देवा, ये बोइले ब्यौहारा । जो साहब से निरंजन प्रगटे, सो सबहीं से न्यारा ||५|| महाकाल से बांचे चाहो, गहो शब्द टकसारा | कहे कबीर अमर कर राखो, जो निज होय हमारा ||६||

संतो काम सकल जग खाया

 संतो काम सकल जग खाया संतो काम सकल जग खाया । स्वादी जीव कोई न बांचे, पर घर गमन कराया टिका काम लहर काहू न चीन्हा, कहो कहाँ से आया । जासों भयो सोई धर खायो, खाता विलंब न लाया ||१|| अद्या रुप ब्रह्म क्षै कीन्हो, तन दे माथ गिराया । ब्रम्हा विष्णु मुनि जन योगी, सकल जीव भरमाया ॥२॥ स्वर्ग मृत्यु पाताल कामवश, चार खान रहु छाया । कहे कबीर काम जोरावर, तीन लोक धर खाया ॥३॥

चादर हो गई बहुत पुरानी

 चादर हो गई बहुत पुरानी चादर हो गई बहुत पुरानी, अब सोच समझ अभिमानी ।।टेका। अजब जुलाहे चादर बीनी, सूत करम की तानी । सुरति निरति को भरना दीनी, तब सबके मनमानी ||१|| मैले दाग पड़े पापन के, विषयन में लपटानी । ज्ञान के साबुन लाय न धोयो, सतसंगति के पानी ।।२।। भई खराब गई अब सारी, लोभ मोह में सानी । ऐसेहि ओढ़त उमर गमाई, भली बुरी नहिं जानी ।।३।। शंका मानि जान जिय अपने, है यह वस्तु बिरानी । कहैं कबीर येहि राखु जतन से, फेर हाथ नहिं आनी ॥४॥

संतो दृष्टि परै सो माया

 संतो दृष्टि परै सो माया २॥ संतो दृष्टि परै सो माया। वह तो अचल अलेख एक है, ज्ञान दृष्टि में आया ।।टेक।। सतगुरु दिये बताय आप में, है मांही सत सोई । दूजा कृत्रिम थाप लिया है, मुक्ति कौन विधि होई ॥१॥ काया झांई त्रिगुन तत्व की, बिनसे कहवां जाई । ३|| जल तरंग जल ही सो उपजे, फिर जल मांहि समाई ||२|| ऐसा देह सदा गत सबकी, मन में हरदम कोई उचारे । आपै भयो नाम धर न्यारा, इस विधि माया देख बिचारे ||३|| आपै रहो समाय समुझ में, ना कहुं जाये न आवै । ऐसी श्वासा समुझ परे जब, पुजे काह पुजावै ॥४|| धरै न ध्यान करै ना जप तप, राम रहीम न गावे । तीरथ ब्रत सकलो भ्रम छोड़े, सुन्न दौर न जावे ।।५।। जोग जुगत सो कर्म न छुटे, आप अपन ना सूझे । कहे कबीर सोई संत जौहरी, जो यह समुझे बूझे ॥६॥

संतो वह घर सबसे न्यारा

 संतो वह घर सबसे न्यारा संतो वह घर सबसे न्यारा, जहाँ पूरण पुरुष हमारा ||टेका। जहाँ न दुख सुख सांच झूठ नहिं, पाप न पुण्य पसारा । ना दिन रैन चाँद ना सूरज, बिना ज्योति उजियारा ||१|| ना तहाँ ज्ञान ध्यान ना जप तप, वेद कितेब न बानी । करनी धरनी रहनी गहनी, ये सब इहां हेरानी ।।२।। धर ना अधर न बाहर भीतर, पिण्ड ब्रह्मांडौ नाहीं । पांच तत्व गुन तीनों नाहीं, साखी शब्द न ताहीं ।।३।। मूल न फूल बेल ना बीजा, बिना वृक्ष फल सोहै । ओहं सोहं अर्ध उर्ध नाहिं, श्वासा लेखत को है ।।४।। ना निर्गुण ना सर्गुण भाई, ना सुक्ष्म अरु अस्थूला । ना अक्षर ना अविगत भाई, या सब जग के भूला ॥५॥ जहां पुरुष तहवां कछु नाही, कहें कबीर हम जाना हमरी सैन लखे जो कोई, पावे पद निरबाना ॥६॥

संतो जागत नींद न कीजे

 संतो जागत नींद न कीजे संतो जागत नींद न कीजे । काल न खाय कल्प ना ब्यापै, देह जरा न छीजे टेक। उलटि गंग समुद्रै सोखै, शशि औ सूर गरासै । नौ ग्रह मार रोगिया बैठे, जल में बिंब प्रकाशै ॥११॥ बिन चरणन के दस दिस धावे, बिन लोचन जग सूझे । स्यारे उलट सिंह को ग्रासे, शूरा होय सो बूझे ॥२॥ सीधे घड़ा नहीं जल आवै, औंधे सो जल भरिया । जा कारण नर भिन्न भिन्न कर, गुरु प्रसादे तरिया ||३|| पैठ गुफा में सब कछु देखै, बाहर कछू न सूझे । उल्टा बान पारधी लागा, शूरा होय सो बूझे ||४|| गायन कहे कबहुँ ना गावे, अनबोला नित गावे । नटवट बाजा पेखिनि पेखै, अनहद हेत बढ़ावे ||५|| कथनी वदनी निज के जो है, यह सब अकथ कहानी । धरती उलट अकाशै भेदे; यह पुरुषों की बानी ॥६॥ बिना पियाला अमृत पीवे, नदी नीर भर राखे । कहे कबीर सो युग युग जीवे, नाम सुधारस चाखे ॥७॥

अवधू कुदरत की गति न्यारी

 अवधू कुदरत की गति न्यारी अवधू कुदरत की गति न्यारी। रंक निवाज करै वह राजा, भूपति करे भिखारी टेक।। येते लौंग हरप नहिं लागे, चंदन फूल न फूला । मच्छ शिकारी रमें जंगल में, सिंह समुद्रहि झूला ॥१॥ रेंडारूख भयो मलयागिर, चहुँ दिस फूटी बासा । तीन लोक ब्रांड खंड में, अंधा देखे तमासा ॥२॥ पंगा मेर सुमेर उलंघे, त्रिभुवन मुक्ता डोले । गूंगा ज्ञान विज्ञान प्रगासे, अनहद बानी बोले ||३|| अकाशहि बांध पताल पठावै, शेष स्वर्ग पर राजे । कहे कबीर राम है राजा, जो कुछ करे सो छाजे ||४||

सकल तज नाम सुमर मेरे भाई

 सकल तज नाम सुमर मेरे भाई सकल तज नाम सुमर मेरे भाई । माटी के तन माटी मिलि हैं, पवन में पवन समाई टेक।। जतन जतन कर सुत को पाले, काचा दूध पिलाई । सो बेटा रे काल होय बैठे, बाबा कहत लजाई ||१|| जो तिरिया मुख बिरिया खवाती, सोवत अंग लगाई । सो तिरिया मुख मोर के बैठी, टूटी गये सकल सगाई ॥२॥ जो देहियाँ पर नीर पखारे, चोवा चंदन लगाई । सो देहियाँ पर काग उड़त है, देखत लोग घिनाई ||४|| झूठी काया झूठी माया, झूठी लोग लुगाई । कहें कबीर सुनो भाई साधो, झूठ जगत पतियाई ।।५।। ॥

गुरू से लगन कठिन मेरे भाई

 गुरू से लगन कठिन मेरे भाई गुरू से लगन कठिन मेरे भाई । लगन लगे बिन काज न सरिहैं, जीव परलय तर जाई ।।टेका। मिरगा नाद शब्द का भेदी, शब्द सुनन को जाई । सोई शब्द सुनि प्रान देत है, तनिको न मन में डराई ||१|| तजि घरबार सती होय निकसी, सत करन को जाई । पावक देख डरे नहिं मन में, कूद परे छिन माही ।।२।। पपीहा स्वाति बूंद के कारन, पिया पिया रट लाई । प्यासे प्रान जाय क्यों न अबही, और नीर नहिं भाई ॥३॥ दो दल आन जुरे जब सन्मुख, सूरा लेत लड़ाई । टूक टूक होय गिरे धरनि में, खेत छोड़ नहिं जाई ॥४॥ छोड़ो अपने तन की आशा, निरभय होय गुन गाई । कहे कबीर ऐसी लौ लावे, सहज मिले गुरू आई ॥५॥

दास पर नाम ध्वजा फहराई

दास पर नाम ध्वजा फहराई दास पर नाम ध्वजा फहराई।। काल जंजाल निकट नहिं आवै, माया देख जो कोई द्रोह कियो संतन से, हरि को नहीं सुहाई ॥१॥ हरनाकुस की वा गति हो गई, रावन धूर उड़ाई । दूरयोधन परीक्षित राजा, फिर पीछे पछताई ॥२॥ सुर पंडित औ नृपत बादशाह, ऊँची पदवी पाई । भक्ति बिना सब तुच्छ बरोबर, बांधे यमपुर जाई ||३|| का भये बेद पुरान गुन गाये, सत्य दया नहिं आई । अहंकार में सबहि भुलाने, अजगर देह सो पाई ||४|| हम तो कान राखि नहिं भाई, ज्यों का त्यों ठहराई । भावे कोई सुख दुख कर माने, भक्ति का पंथ चलाई ॥५॥ जोग यज्ञ तीरथ ब्रत संयम, करनी कोट कराई । नाम बिना सबही हैं खाली, कहे कबीर समुझाई ॥६॥

हमन है इश्क मस्ताना

 हमन है इश्क मस्ताना हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या । रहे अजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ||१|| खलक' सब नाम अपने को, बहुत कर सिर पटकता है। हमन गुरू ज्ञान आलम है, हमन को नामदारी क्या ॥२॥ जो बिछु रे है पियारे से, भटकते दर बदर फिरते । हमारा यार है हममें, हमन को इन्तजारी क्या ॥३|| ना पल बिछुरे पिया हमसे, ना हम बिछुरे पियारे से । उन्ही से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या ||४|| कबीर इश्क का माता', दुई को दूर कर दिल से । ये चलना राह नाजुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या ||५||

जिनकी रहनी अपार जगत में

 । जिनकी रहनी अपार जगत में जिनकी रहनी अपार जगत में, सोई सतनाम पियारा हो ।।टेक।। जैसे पुरइन' रहे जल भीतर, जलही में करत पसारा हो। वाके पत्र नीर नहीं ब्यापे, ढरकि जात जल पारा हो ॥१|| जैसे सूर चढ़े रन ऊपर, बांध सकल हथियारा हो। वाकी सुरति रहे लड़ने में, प्रेम मगन ललकारा हो ॥२॥ जैसे सती जरे पिय के संग, पिया वचन नहिं टारा हो। आप तरे औरन को तारे, तारे कुल परिवारा हो ॥३॥ ऐसी रहन सो साधु कहावै, आतम तत्व बिचारा हो । कहें कबीर सुनों भाई साधो, पहुंचे गुरू का प्यारा हो ||४||

जीवन मुक्त हमारा संतो

 जीवन मुक्त हमारा संतो जीवन मुक्त हमारा संतो, जीवन मुक्त हमारा हो । संशै नहीं नहीं कछ धोखा, करम भरम सो न्यारा हो ।।टेका। पांच तीन हमही उपराजे, हमही ठाढ़ी काया हो । जहाँ ले जग में भया पसारा, . सो सब हमरी माया हो ||१|| ओहं सोहं ररंकार धुन, सो सब हमही कीन्हा हो। गुप्त रहे परगट जग माहीं, सो गत काहु न चीन्हा हो ॥२॥ रहत ठौर जहाँ रहे न कोई, धर अधरहि के पारा हो । जोत स्वरूपी देव निरंजन, सो सब खेल हमारा हो ॥३॥ खुद बानी को समुझो संतो, सत्त सत्त कहि भाखी हो। । ज्ञान जौहरी समुझ लेयेंगे, सत हमारी साखी हो ||४|| अलख अगम गत को यह बूझे, बूझ करै सो संता हो । कहें कबीर कहा हम भाखो, अगम अपार अनंता हो ||५||

सोहंग हंसा सकल समाना

 सोहंग हंसा सकल समाना सोहंग हंसा सकल समाना, काया के गुन आनहि आना ।।टेका। माटी एक सकल संसारा, आनि आनि वासन घड़े कुम्हारा||१|| सरिता सिन्धु और कूप तलाई, एकहि नीर सकल रहु छाई ॥२॥ पांच बरन की दुहिये गाय, देखे मन पतियाय ॥३॥ कहें कबीर संशय कर दूर, सब घट ब्रह्म रहे भरपूर ॥४॥ श्वेत दूध

तज काम क्रोध मद मोह होरी खेलिये

 तज काम क्रोध मद मोह होरी खेलिये तज काम क्रोध मद मोह होरी खेलिये। ज्यों पंकज जल में रहे, जल नहीं परसत देह । उर माया मन परहरी, सतगुरु से कर नेह ।।१।। ज्ञान सुगंध गोद भर लीजे, कुबुध गुलाल उड़ाइये । सत्यनाम गुन गाइये, यश को डफ बजाइये ||२|| मानुष तन दुर्लभ है संतो, खेलो फाग सुभाव । कहें कबीर चित चेतो हंसा, बहुरि न ऐसो दाव ||३||

अचरज देखो कामिनी

 अचरज देखो कामिनी अचरज देखो कामिनी, कहते को पतियाय । अधर साहब हम देखिया, सतगुरु डंडिया फंदाय ॥टेक।। चंद सूर जहां नहीं, जहाँ न धरती अकाश । तौन पुर्ष मोरे प्रीतम, केहि विध करो निवास ॥१॥ गुरु दरशन के कारने, सरबस देऊं लुटाय । एक पलक के बिछुरे, अब मोहि कछु न सुहाय ||२|| गुरू दरसन हम पायल, छूटल कुल परिवार । अब जैहों पुर आपने, परख परख टकसार ||३|| कहे कबीर धर्मदास सो, हिरदे करो बिचार | अरस परस करो कामिनि, निर्गुण नाह तुम्हार ||४||

हंसा दुरमति छोड़ दे

 हंसा दुरमति छोड़ दे हंसा दुरमति छोड़ दे, तू तो निर्मल होय घर आव हो।।टेक।। दूधहि से दधि होत है. दधि मथि माखन होय । माखन से घृत होत है, बहुरि न छाछ समोय ।।१।। ऊँख' हि से गुड़ होत है, गुड़ से खांड़ जो होय । सतगुरु मिल मिसरी भये, बहुरि न ऊँ ख समोय ।।२।। खाँड़ जो बगरी रेत में, गज मुख चुनी न जाय । जाति वरन कुल खोय के, चीटी होय चुन खाय ||३|| दाग जो लागा नील का, नौ मन साबुन धोय । कोटि जतन परमोदिये, कागा हंस न होय ||४|| कहे कबीर सुन के शवा, तेरी गति अगम अपार | बाप बिनोरा हो रहे, पूत भये चौतार ||५||

कौन मिलावे मोहे जोगिया

 कौन मिलावे मोहे जोगिया कौन मिलावे मोहे जोगिया, जोगिया बिन रहो न जाय।।टेक।। हौं हिरनी पिय पारधी, मारा शब्द के बान । जाहि लगे सोई जानिया, और दरद नहिं आन ||१|| पिय कारन पियरी भई, लोग कहें तन रोग । जप तप लंघन' मैं करौं, पिया मिलन के योग ।।२।। हूँ तो प्यासी पिव की, रटौं सदा पिव पिव । पिया मिले तो जीविहौ, ना तो सहजे त्यागों जीव ॥३॥ कहे कबीर सुन जोगिनी, तन ही में मन ही समाय। पिछली प्रीत के कारने, जोगी बहुरि मिलेंगे आये ॥४॥

संतो गगन मंडल करो बासा

 संतो गगन मंडल करो बासा संतो गगन मंडल करो बासा, जहां देखो अजब तमाशा टेका। गढ़ मेरो गगन सुरति मेरो चौका, चेतन चैवर दुरावै । इंगला पिंगला सुषमन नाड़ी, अनहद बीन बजावै ॥१॥ अष्ट कमल दल पंखुरी बिराजे, उलटा ध्यान लगावै । पाँच पचीस एक घर लावै, तब धुन की सुध पावै ॥२॥ त्रिकुटी घाट अस्नान को करले, रवि शशि सुषमन होई। हंसा केल करत साजन संग, एक महल में दोई ।।३।। बिन बादल जहां बिजली चमके, बिना सीप के मोती । कहें कबीर सुनो भाई साधो, निरखहू निरमल ज्योती ||४||

अब हम अविगत से चलि आये

 अब हम अविगत से चलि आये अब हम अविगत से चलि आये, कोई भेद मरम न पाये ||टेक।। ना हम जन्में गर्भ बसेरा, बालक होय दिखलाये । काशी शहर जलहि बीच डेरा, तहाँ जुलाहा पाये ||१|| हते विदेह देह धरि आये, काया कबीर कहाये । बंश हेत हंसन के कारन, रामानन्द समुझाये ।।२।। ना मोरे गगन धाम कछु नाही, दीखत अगम अपारा । शब्द स्वरूपी नाम साहब का, सोई नाम हमारा ।।३।। ना हमरे घर मात पिता है, नाहि हमरे घर दासी । जात जोलाहा नाम धराये, जगत कराये हाँसी ।।४।। ना मोरे हाड़ चाम ना लोहू, हौं सतनाम उपाशी । तारन तरन अभयपददाता, कहैं कबीर अविनाशी ||५||

घूघट के पट खोल रे

 घूघट के पट खोल रे चूँघट के पट खोल रे, तोहे पिया मिलेंगे ||टेक।। घट घट में वह सांई रमता, कटुक वचन मत बोल रे ॥१॥ धन जोबन का गर्व न कीजै, नाजियही झूठा पचरंग चोल रे ॥२॥ शून्य महल में दियना बारि ले,नागा नंगा आसन से मत डोल रे ॥३॥ जोग जुगति से रंग महल मे, पिया पायो अनमोल रे ॥४॥ कहें कबीर आनंद भयो हैं, बाजत अनहद ढोल रे ॥५॥

आनंद मंगल गावो मोरी सजनी

 आनंद मंगल गावो मोरी सजनी आनंद मंगल गावो मोरी सजनी, भई परभात बीत गई रजनी ॥टेक।। नाचन कूदन तजो बहु बैना, सतगुरु शब्द परख हिय लेना ॥१॥ अधर आकाश फूली फूलवारी, मनसा मालिनी करे रखवारी ।।२।। सींचत अमी अमृत फल लागा, चाखेंगे कोई संत सुभागा ||३|| कहें कबीर गूंगे की सैना,  सतगुरु चरन लगे दोऊ नैना ||४||

आपही धारमधारी साहेब

आपही धारमधारी साहेब आपही धारमधारी साहेब, आपही खेल खिलारी है। टेक।। पांच तत्व का किया पसारा, तिरगुण माया सारी है। चेतन रुप आप होय बैठा, यही अचम्भा भारी है ||१|| तंबू तो असमान तनाया, जमी दूलीचा डारी है । चाँद सूरज दोऊ बरे मशालें, तेरी कुदरत न्यारी है ॥२॥ सुरत निरत की चौपर माड़ी, तू पासा जग सारी है । पासा चाहे जिसे जितावे, सारी कौन बिचारी है ||३|| छके पंजे सों नरद बचावे, बाजी कठिन करारी है । जाकी नरद पकी घर आवे, सोई सुघर खिलारी है ||४|| जाके सिर पर साहब राजी, ताको जगत भिखारी है। कहें कबीर समुझ के खेलो, अबकी जीत हमारी है ॥५॥

क्या सोया उठ जाग मन मेरा

क्या सोया उठ जाग मन मेरा क्या सोया उठ जाग मन मेरा, भई भजन की बेरा रे ||टेका। रंग महल तेरा पड़ा रहेगा, जंगल होगा डेरा रे । सौदागर सौदा को आया, हो गया रैन बसेरा रे ॥१॥ कंकर चुन चुन महल बनाया, लोग कहें घर मेरा रे । ना घर तेरा ना घर मेरा, चिड़िया रैन बसेरा रे ॥२॥ अजावन का सुमिरन करले, शब्द स्वरूपी नामा रे । भँवर गफा में अमृत चूवे, पीवे संत सुजाना रे ।।३।। अजावन वे अमर पुरूष है, जावन सब संसारा रे । जो जावन का सुमिरन करिहैं, पड़े चौरासी धारा रे ||४|| अमरलोक से आया बंदे, फिर अमरापुर जाना रे । कहें कबीर सुनों भाई साधो, ऐसी लगन लगाना रे ॥५।

क्या सोया गफलत के माते

 क्या सोया गफलत के माते क्या सोया गफलत' के माते, जाग जाग उठ जाग रे।।टेक।। उमदा चोला बना अमोला, लगा दाग पर दाग रे । दो दिन की जिन्दगानी जगत में, जरत मोह की आग रे ||१|| तन सराय में जीव मुसाफिर, करता बड़ा दिमाग रे। रैन बसेरा करले डेरा, चला सबेरा ताक रे ।।२।। कर्म केंचुली लगी चित में, भया मनुष से नाग रे । पड़ता नहीं समुझ सुखसागर, बिना प्रेम बैराग रे ॥३॥ यह संसार विषय रस माते, देखो समुझ बिचार रे ।। मन भौरा तू विष के वन तज, चल साहेब के बाग रे ॥४॥

जाग रे जंजाली जियरा

 जाग रे जंजाली जियरा जाग रे जंजाली जियरा, यह तो मेला हाट का ||टेका। तात मात सुत भाई बंधवा, यह तो मेला ठाट का । अंत समय तू चला अकेला, जैसे बटोही बाट का ||१|| राज काज सब झूठा धंधा, जरी पितंबर पाट का । महल खजाना रहा भंडारा, लादा भांडा काठ का ।।२।। धोबी के घर गदहा होगा, घर का भया न घाट का। लालच लोभ धरे शिर गठरी, जैसे घोड़ा भाट का ॥३॥ रात दिवस तैं खोय गँवाया, भजन ना किया निराट का। कहें कबीर सुनो भाई साधो, जम कूटे ज्यों साट का ॥४॥