अवधू भूले को घर लावे
अवधू भूले को घर लावे अवधू भूले को घर लावे, सो जन हमको भावे ॥टेका घर में जोग भोग घर ही में, घर तजि बन नहीं जावे । बन के गये कल्पना उपजे, अब धौ कहाँ समावे ॥१॥ घर में जुक्ति मुक्ति घर ही में, जो गुरू अलख लखावे । सहज सुन्न में रहे समाना, सहज समाधि लावे ||२|| उनमुनि रहै ब्रह्म को चीन्हे, परम तत्त्व को ध्यावे । सुरत निरत सो मेला करिके, अनहद नाद बजावे ||३|| घर में बसत वस्तु भी घर है, घर ही वस्तु मिलावे । कहें कबीर सुनो हो अवधू, ज्यों का त्यों ठहरावे ॥४॥